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सीहोर, संकट में बच्चों का भविष्य

जिले की बहुत बडी आबादी वन क्षेत्रों में निवास करती है, इन वनवासियों के बच्चों को शिक्षित करने की योजनाएं और दावे तो बडे-बडे किए जाते हैं, लेकिन यह दावे खेतों से होकर जंगल के पथरीले रास्तों के बीच कहीं खो जाते हैं। जंगली जीवन जीने वाले आदिवासी अपने बच्चों को शिक्षित करने का सपना संजोए स्कूल तो भेजते हैं, लेकिन जिले के जंगलों में स्थित स्कूल उनके लिए केवल ईट-गारे के मकान ही बने हुए हैं।इन बच्चों की आंखों के सपने रेगिस्तान की मरीचिका बने स्कूलों में गुम हो गए हैं। आदिवासी बहुल काला पहाड क्षेत्र में स्थित गांवों में न तो स्कूल खुलते हैं और न ही शिक्षक पहुंचते हैं। जो स्कूल खुलते भी हैं, तो वहां पदस्थ शिक्षकों को साल-साल भर वेतन नहीं मिल पाता है। बुरे हाल हैं आदिवासी बहुल गांवों केजिला मुख्यालय से मात्र दस किलोमीटर दूर चलने पर ही काले पहाड क्षेत्र के जंगल प्रारंभ हो जाते हैं, इन जंगलों में दर्जनभर से अघिक आदिवासी बहुल गांव और आदिवासियों के डेरे हैं और अंदर जाने पर घने जंगल के बीच गांव भी है। यह जंगल सीहोर तहसील से होते हुए इछावर तहसील के कुछ गांवों तक जाता है।जिला मुख्यालय से दस-बारह किलोमीटर दूर होने के बाद भी इन आदिवासी बहुल गांवों में स्कूलों की स्थिति बदहाल हो चुकी है। इस मार्ग पर सबसे पहले पडने वाले आदिवासी बहुल गांव उजडखेडा की ईजीएस शाला में कहने को 35 बच्चे दर्ज हैं, लेकिन इन बच्चों को न तो मध्याह्न भोजन मिलता है न ही अन्य कोई सुविधाएं। यहां पदस्थ गुरूजी कमल लोधी को गत 15 महीने से वेतन नहीं मिला है। इसी मार्ग पर आगे चलने पर कांग्रेस शासनकाल का सबसे चर्चित गांव धबोटी आता है जहां कहने को पढाई हो रही है, लेकिन दो शिक्षक प्राथमिक कक्षाओं को और तीन माध्यमिक कक्षाओं को संभाल रहे हैं। यहां पढने वाले बच्चों के पालकों ने बताया कि उनके बच्चे पांचवीं में पहुंच गए हैं, लेकिन उन्हें दो का पहाडा तक नहीं आता। कक्षा छह के बच्चों की मानें तो परीक्षा में 15 दिन भी नहीं है, लेकिन अभी हिंदी के आधे पाठ पढाना बाकी हैं। इसी मार्ग पर आगे बढने पर जूनापानी गांव है जहां बना स्कूल चार साल पहले बना था, जिसके दरवाजे खिडकियां तक गायब हो चुके हैं। अब यहां न तो शिक्षक आते हैं न ही बच्चे। इसके पडोस में स्थित गांव महुएवालापुरा के वनवासियों ने बताया कि यहां एक मैडम आती हैं, लेकिन महीने में एक बार। क्या कहते हैं वनवासीमेरे चार बच्चे स्कूल में पढते हैं ,उनमें से तीन को किताब पढना तो दूर दो का पहाडा नहीं आता है। केवल छटी का ब“ाा ही किताब पढ पाता है। हमने जंगलों में जिंदगी गुजारी है हमारी इच्छा है बच्चे पढ लिख लें।- तौर सिंह, कोरकू ग्राम धबोटीहमारे गांव के पास चार साल पहले स्कूल बनाया गया था, लेकिन अब तो उसके दरवाजे और खिडकिया भी गायब हो गए हैं, पहले शिक्षक यहां आते थे, लेकिन सालभर से वह भी नहीं आ रहे हैं।- पप्पू भील, जूनापानीमैं यहां प्रतिदिन आ रहा हूं। जितने भी बच्चे आते हैं उन्हें पढाता हूं, लेकिन न तो मुझे सोसाइटी से खाद्यान्न दिया जा रहा है न ही 15 महीनों से मुझे वेतन मिला है। -कमल सिंह लोधी, गुरूजी उजडखेडा मैं बेलदारपुरा ग्राम कुडी में शिक्षा गारंटी शाला में अतिथि शिक्षक हूं, यहां 35 बच्चे हैं, जिन्हें प्रतिदिन पढाता हूं, लेकिन मुझे बीते आठ महीने से वेतन नहीं मिला है। मुझे सौ रूपए प्रतिदिन के हिसाब से रखा गया था-दिनेश प्रजापति, बेलदारपुरायहां घंटे आधे घंटे के लिए एक नए सर आते हैं, यहां से कांकरखेडा मार्ग पर बढने पर ग्राम बेलदारपुरा कुडी में एक विद्यालय खुला मिला, जिसमें अतिथि शिक्षक दिनेश प्रजापति बच्चों के साथ मिला। यहां चिंताजनक बात यह है कि अतिथि शिक्षक को बीते सात महीने से वेतन नहीं मिला है, लेकिन वेतन की आस में वह अब भी पढा रहा है। -हरिसिंह भील, ग्रामीणहम नियमित रूप से पढाई करवाते हैं, लेकिन यहां आदिवासी बहुल क्षेत्र में पालक बच्चों को रोजाना स्कूल नहीं भेजते हैं, जिसके चलते उनका शैक्षणिक स्तर नहीं सुधर पा रहा है। -दौलतराम कतरोलिया, प्रधानअध्यापकवन्यग्रामों में स्थित ईजीएस शालाओं और अन्य स्कूलों में कोई शिक्षक जाना नहीं चाहता है। शिक्षकों की कमी के चलते इन विद्यालयों के लिए शिक्षक पर्याप्त संख्या में नहीं उपलब्ध हो पा रहे हैं, फिर भी हमने अतिथि शिक्षकों सहित अन्य मोबाइल शिक्षकों के माध्यम से इन क्षेत्रों में दो-दो घंटे पढाने की व्यवस्था की है। कई जगह स्कूलों का निर्माण जारी है। इन क्षेत्रों में बच्चों की उपस्थिति भी नियमित नहीं हो पाती है।

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