सदियों तक प्रतिकूल में रही भारतीय जनता की अशिक्षा संघ-विश्वास और राष्ट्रीय मामलों में अधिकांश बार की असंवेदनशीलता हमे अपने लोकतंत्र के भविष्य को लेकर चिंतित करती रही थीं। किन्तु कई बार के चुनावी निर्णयों ने इन चिंताओं को सिरे से समाप्त भी किया था। उपरोक्त परिस्थितियों के रहते हुए भी कई बार पूरे देश ने चुपचाप ऐसे परिपक्व निर्णय दिए थे, कि सारी दुनिया दंग रह गई थी। हम आश्वस्त भी हुए कि हमारा लोकतंत्र अब समझदार होने लगा है। लेकिन इस बार के चुनाव ने हमें थोड़ी चिन्ता में डाल दिया है। समझदार परिपक्व और 62 वर्ष के उम्रदार प्रजातंत्र में वोट डालने सिर्फ पचास प्रतिशत लोग ही पहुचे । यानी आधे लोग ही अपने अधिकार या अपने दायित्व को पाने या पूरा करने पहुंचे ही नहीं। यह स्थिति सिर्फ मध्यप्रदेश की ही नहीं रही, गुजराज, महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी यही स्थिति रही। बावजूद इसके कि चुनाव आयोग से लेकर स्वेच्छिक संगठनों तक और राजनैतिक पार्टियों से लेकर मीडिया संगठनों, संस्थानों, धार्मिक पुरूषों, फिल्मी हस्तियों तक ने विभिन्न माध्यमों से अधिकाधिक मतदान की अपील की थी। इन सबके चलते अचानक भरोसा नही होता कि सूरज के आगे सियासी पारा गिरा है। प्रजातंत्र की सेहद के लिए ये अच्छे संकेत नहीं है। आधी जनता वोट देने जाए। औसतन चार लोगों में ये वोट बंटे। बीस से तीस या ज्यादा से ज्यादा 35 प्रतिशत वोट पाने वाला राज करे।
यह कैसे हुआ जनता के द्वारा ओर जनता के लिए तंत्र ? यह तंत्र जो भी हो प्रजातंत्र तो नही ही हो सकता। अत: आज जरूरत है एक राष्ट्रीय बहस की देश व्यापी विमर्श की ओर गहरे चिन्तन की, कि हमारा प्रजातंत्र उसके सच्चे अर्थों में कैसा हो। निर्वाचन के समय निर्वाचन के सुझाव उन लोगों की तरफ से आए हैं जिन्होंने रक्त स्वेद का तर्पण कर भारत में प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मैं तो एक दीर्घकालीन राष्ट्रीय बहस के साथ हर स्तर के ' ब्रेन-स्टार्मिंग ' का सुझाव प्रस्तुत कर रहा हूँ। एक ऐसे विचार का मंथन का सुझाव है जिसका परिणाम मतदान का प्रतिशत सौ फीसदी नहीं तो 75-80 प्रतिशत तो हो ही। शासकीय योजनाओं के लाभ से मतदान को जोड़ा जा सकता है। मतदाता की शिक्षा, दीक्षा, जीवन अनुभव और सामाजिक दायित्वों के मान से मत का मूल्यांकन भी निर्धारित किया जा सकता है।
स्मरण कीजिए जब अटल जी प्रधानमंत्री थे तब एक संविधान क्रियान्वयन समीक्षा आयोग बना था। डॉ। सुभाष कश्यप इसकी ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने तो संविधान संशोधन के जरिए मतदान को अनिवार्य करने तक का सुझाव दिया था। चुनाव सुधार अटल जी की सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता थी। उस आयोग की एक भी अंतरिम सिफारिश पर मनमोहन सिंह - सोनिया गांधी सरकार ने कभी विचार ही नही किया। नदी जोड़ो अभियान की तरह पोटा को ठंडे बस्ते में डाला गया। चुनाव सुधार का बस्ता कभी खोला ही नही गया। क्योंकि खंडित बहुमत पर राज्य चलाने वाले जातिगत, क्षेत्रगत, भाषागत आधार पर सरकारें बनाने वाले लोग चुनाव सुधार होते ही हाशिए पर कर दिए जाते। उनकी तो राजनीतिक दुकान ही बंद हो जाती।
हालांकि मैं इस मुद्दे पर एक पक्ष हूँ । लेकिन मतदाता को मतदान के लिए केन्द्र तक लाने ले जाने की बंदिश को मैं लोकतंत्र के साथ अन्याय मानता हूँ । या तो चिलचिलाती धुप में मतदाताओं को सरकार वोट डालने लाए या राजनीतिक दलों को लाने दे। मतदान तो गुप्त ही रहेगा। इसी देश में चुनाव में राजे, रजवाडे, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चुनाव हारे है। मतदाता इतनी छोटी सेवा पर नही बिकता। आप माने या न माने बंबई के आतंकवादी हमले और यूपी सरकार के उस पर व्यवहार ने भी जनता में लोकतंत्र के प्रति रूचि घटाई है। गठबंधन की यह सरकार जनता की सुरक्षा में पूरी तरह नाकाम रही थी। उस समय जनता में मंत्रियों, राजनेताओं और जनप्रतिनिधियों को लेकर जो टिप्पणियां हुई थीं, वे बेहद शर्मनाक थीं। चूंकि चुनाव और मतदान को लेकर एक ब्रेन स्टार्मिंग का सुझाव है। इसलिए हमें विचार करना पड़ेगा कि युवा पीढ़ी को हमने कितनी जिम्मेदारी दी है। 18 वर्ष के युवक को मतदान का हक देकर हमने विश्व में एक कीर्तमान बनाया है, लेकिन वह चुनाव नहीं लड़ सकता। यहीं कारण हैं कि युवा मतदाता निराशा के कारण मतदान केन्द्र पर नहीं पंहुचा ।
चुनावी कायाकल्प के लिए अटल जी जैसी तीव्र इच्छा शक्ति चाहिए। संविधान संशोधन के जरिए मतदान अनिवार्य हो सकता है। तभी प्रजातंत्र स्वस्थ और प्रभावी रहेगा। इस मुद्दे पर सामाजिक, धार्मिक, स्वेच्छिक और शैक्षणिक के साथ प्रशासनिक और राजनीतिक नेतृत्व को एक जाजम पर बैठना ही होगा।
यह कैसे हुआ जनता के द्वारा ओर जनता के लिए तंत्र ? यह तंत्र जो भी हो प्रजातंत्र तो नही ही हो सकता। अत: आज जरूरत है एक राष्ट्रीय बहस की देश व्यापी विमर्श की ओर गहरे चिन्तन की, कि हमारा प्रजातंत्र उसके सच्चे अर्थों में कैसा हो। निर्वाचन के समय निर्वाचन के सुझाव उन लोगों की तरफ से आए हैं जिन्होंने रक्त स्वेद का तर्पण कर भारत में प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मैं तो एक दीर्घकालीन राष्ट्रीय बहस के साथ हर स्तर के ' ब्रेन-स्टार्मिंग ' का सुझाव प्रस्तुत कर रहा हूँ। एक ऐसे विचार का मंथन का सुझाव है जिसका परिणाम मतदान का प्रतिशत सौ फीसदी नहीं तो 75-80 प्रतिशत तो हो ही। शासकीय योजनाओं के लाभ से मतदान को जोड़ा जा सकता है। मतदाता की शिक्षा, दीक्षा, जीवन अनुभव और सामाजिक दायित्वों के मान से मत का मूल्यांकन भी निर्धारित किया जा सकता है।
स्मरण कीजिए जब अटल जी प्रधानमंत्री थे तब एक संविधान क्रियान्वयन समीक्षा आयोग बना था। डॉ। सुभाष कश्यप इसकी ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने तो संविधान संशोधन के जरिए मतदान को अनिवार्य करने तक का सुझाव दिया था। चुनाव सुधार अटल जी की सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता थी। उस आयोग की एक भी अंतरिम सिफारिश पर मनमोहन सिंह - सोनिया गांधी सरकार ने कभी विचार ही नही किया। नदी जोड़ो अभियान की तरह पोटा को ठंडे बस्ते में डाला गया। चुनाव सुधार का बस्ता कभी खोला ही नही गया। क्योंकि खंडित बहुमत पर राज्य चलाने वाले जातिगत, क्षेत्रगत, भाषागत आधार पर सरकारें बनाने वाले लोग चुनाव सुधार होते ही हाशिए पर कर दिए जाते। उनकी तो राजनीतिक दुकान ही बंद हो जाती।
हालांकि मैं इस मुद्दे पर एक पक्ष हूँ । लेकिन मतदाता को मतदान के लिए केन्द्र तक लाने ले जाने की बंदिश को मैं लोकतंत्र के साथ अन्याय मानता हूँ । या तो चिलचिलाती धुप में मतदाताओं को सरकार वोट डालने लाए या राजनीतिक दलों को लाने दे। मतदान तो गुप्त ही रहेगा। इसी देश में चुनाव में राजे, रजवाडे, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चुनाव हारे है। मतदाता इतनी छोटी सेवा पर नही बिकता। आप माने या न माने बंबई के आतंकवादी हमले और यूपी सरकार के उस पर व्यवहार ने भी जनता में लोकतंत्र के प्रति रूचि घटाई है। गठबंधन की यह सरकार जनता की सुरक्षा में पूरी तरह नाकाम रही थी। उस समय जनता में मंत्रियों, राजनेताओं और जनप्रतिनिधियों को लेकर जो टिप्पणियां हुई थीं, वे बेहद शर्मनाक थीं। चूंकि चुनाव और मतदान को लेकर एक ब्रेन स्टार्मिंग का सुझाव है। इसलिए हमें विचार करना पड़ेगा कि युवा पीढ़ी को हमने कितनी जिम्मेदारी दी है। 18 वर्ष के युवक को मतदान का हक देकर हमने विश्व में एक कीर्तमान बनाया है, लेकिन वह चुनाव नहीं लड़ सकता। यहीं कारण हैं कि युवा मतदाता निराशा के कारण मतदान केन्द्र पर नहीं पंहुचा ।
चुनावी कायाकल्प के लिए अटल जी जैसी तीव्र इच्छा शक्ति चाहिए। संविधान संशोधन के जरिए मतदान अनिवार्य हो सकता है। तभी प्रजातंत्र स्वस्थ और प्रभावी रहेगा। इस मुद्दे पर सामाजिक, धार्मिक, स्वेच्छिक और शैक्षणिक के साथ प्रशासनिक और राजनीतिक नेतृत्व को एक जाजम पर बैठना ही होगा।
0 Comments