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कब आएगी बहार वीराने में ?

आजादी के छ : दशक पार करने के बाद भी देश को गरीबी के बंजर से निजात नहीं मिल पायी है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने कितने हीकीर्तिमान क्यों न गढ़े हों, लेकिन हकीकत यही है कि आज भी देश में अस्सी प्रतिशत लोग बीस रूपए से भी कम की दैनिक आमदनी में जीवन - यापन कर रहे हैं। ये ऐसा बंजर है, जहां खुशहाली की लहलहाती फसल का सपना देखने वाली आंखें इसके इंतजार में बूढी हो गई, लेकिन खुशहाली का वो मंजर उन्हे ताउम्र नजर नहीं आया। दौर आए और गए, मगर गरीबी का बदस्तूर आज भी जारी है। बढ़ती महंगाई ने भी आम आदमी की कमर तोड़ रखी है। देश में कांक्रीट का जंगल भले ही बढ़ रहा हो, लेकिन इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि दुनिया की सबसे बड़ी झोपड़पटी भी हमारी आर्थिक राजधानी मुंबई के धारावी में ही है। इस गरीबी के दलदल में जीने वाले करोड़ों लोगों की आंखों में भी सपने पलते है। यो बात और है कि वो इन सुखद सपनों को यथाथ के धरातल पर नहीं ला पाते, लेकिन दो वक्त की रोजी का जुगाड़ करने वाला गरीब आंखों में ये सपने लिए जीभर के सोता है। देश तरक्की कर रहा है और यह भी संभव है कि विकाससशील देशों की श्रेणी में आने वाल भारत विकासित देशों की श्रेणी में भी आ जाए, लेकिन गरीब की आंखों में पलने वाले सपनों को मूर्तरूप दे पाने में हमें कितना वक्त लगेगा यह एक अबूझ पहेली ही जान पड़ती है।


जिस तरह गरीबी को परिभाषित करने के कई तरीके हैं, उसी प्रकार गरीबी के बारे में कई तरह के आंकड़े भी हैं। अर्थशास्त्री और राज्यसभा के सदस्य अर्जुन सेनगुप्ता का एक स्टेटमेंट था कि भारत में ऐसे ८३.६ करोड़ लोग हैं जो रोजाना २० रूपये से भी कम पर गुजारा करते हैं, उस हिसाब से देश की ७७ फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी। अब यह आंकड़ा अंस्सी को पार कर गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त कमिश्नर की हैसियत से काम करने वाले अवकाश प्राप्त नौकरशाह एन.सी.सक्सेना ने हाल ही में गरीबी के जो नए आंकड़े पेश किए हैं, उनके अनुसार देश की कुल आबादी में से १.१५ अरब लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। इसका मानक ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति आय ७०० रू प्रतिमाह और शहरी इलाकों में १००० रू प्रतिमाह बताया गया है।
क्या है पैमाना :- विश्व बैंक के गरीबी निर्धारित करने के पैमाने के मुताबिक १.२५ डॉलर प्रतिदिन की आय प्राप्त करने वाले को गरीब माना जाता है। विश्व बैंक के अनुसार भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग २००५ में ४२ प्रतिशत थे, जो आज ५० प्रतिशत के करीब पहुंच चुके हैं।
पैमाने के निर्धारक :- वास्तव में गरीबी और गरीबी रेखा को तय करने वाले लोगों की ओर नजर दौड़ाई जाए तो हकीकत सामने होगी। हमारे साथ यह विडंबना है कि निर्धारक किस आधार पर ये पैमाना तय करते हैं। कभी प्रति व्यक्ति आय इसका आधार होती है तो कभी जीडीपी। इस मामले में विशेषज्ञों और सरकारी आंकड़ों में असमानता दिखाई देती है, लेकिन सच्चाई को आकड़ों से झुठलाया नहीं जा सकता। गरीबी का आधिकारिक आंकड़ा चार दशक पहले तैयार किया गया था और यह भोजन की जरूरत पर होने वाली लागत पर आधरित था। आधिकारिक आकलना अब उपयोगी नहीं रह गया है। दूसरी ओर यह तर्क दिया जा सकता है कि गरीबी के आंकडे लंबी अवधि के संकेतक के तौर पर उपयोगी हैं, लिहाजा इन्हें अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। चाहे गरीबी को फिर से पारिभाषित करते हुए इसमें शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच नहीं रखने वालों को शामिल किया जाए। समस्या यह है कि ये आंकड़े परस्पर असंगत हैं। अगर एक अनुमान सही है तो फिर अन्य अनुमान गलत होने चाहिए। एनसीएईआर ने अनुमान लगाया है कि २००९ - १० में आधे भारतीय परिवार अब ७५०० रू. प्रति माह ( २००१ - ०२ की कीमत पर ) से ज्यादा रकम पर जीवन यापन कर रहे हैं। महंगाई को समायोजित करने के बाद आज यह ११००० रू. प्रति माह बैठता है। यह मानते हुए कि औसत परिवार में पांच सदस्य होते हैं, ५० फीसदी भारतीय २००० रूपये मासिक प्रति व्यक्ति आय पर जी रहे हैं।
विश्व बैंठ की रिपोटे :- विश्व बैंक द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में गरीबी, जितनी सरकार द्वारा बताई जाती है। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि भारत के कई लोगों की सालाना तनख्वाह सरकार की आधिकारिक गरीबी रेखा से कहीं अधिक बताई जाती है, लेकिन बावजूद इसके लोगों को अपनी मूलभूत आवश्कताओं को पूरा करने के लिए जरूरी आमदनी की रकम को जिस प्रकार सरकार ने निर्धारित किया है, आम लोगों के उससे कहीं ज्यादा पैसे लगते हैं। इस आधार पर विश्व बैंक का मानना है कि भारत में गरीबी रेखा के नीचे कहीं ज्यादा लोग हैं। जहां तक भारत में आमदनी की बात है, इस रिपोर्ट के अनुसार भारत का एक तिहाई हिस्सा आज भी दिन में एक डॉलर यानि ५० रूपये से कम कमाता है। साथ ही रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के लगभग सभी हिस्सों में लोग गरीबी की रेखा से नीचे रहते हैं।

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1 Comments

  1. विषय राष्ट्र के एक वर्ग पर यहाँ ठिठक जाते हैं।
    राष्ट्र-प्रेम के सारे मानक यहाँ छिटक जाते हैं।
    अर्थ-बजट की द्रष्टि जाकर एक जगह टिकती है।
    एक वर्ग की मनुहारों पर संसद यह बिकती है।7।

    bahut achchha lekh hai.

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