लोकसभा चुनाव सन्निकट है । एक बार फिर मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के पास सिर्फ और सिर्फ शिवराज सिंह चौहान का चेहरा है। यह एक ही ऐसा चेहरा है भाजपा के पास, जो राजनीतिक रूप से धनवान है, बाकी कंगाल। कहने का आशय यह है कि पिछले कुछ सालों में मीडिया, सरकारी और भाजपायी प्रचार तंत्र ने दिग्विजय सिंह के 'पप्पू" यानी शिवराज सिंह की इमेज कुछ इस तरह की बना दी है जिसके सामने सब बौने नजर आते हैं। सिर्फ उनकी ही राजनीतिक समृद्धता नजर आती है। आम आदमी उन्हें मामा, भाई, काका, चाचा समझता है। उनकी छवि अनादर मिस्टर लीन के रूप में उभर रही है। शिव बिना लाग लपेट, निस्पृह भाव से भाष्ण देने एवं अफसरों द्वारा बनाए गए कार्यक्रमों में ज्ञानवर्द्धन में लगे रहते हैं। शिव को यह उपक्रम करते समय ऐसा लगता है कि प्रदेश में सब कुछ ठीक चल रहा है। वस्तुत: ऐसा है नहीं! वे मन के भोले हैं, सो उन्हें लगता है कि मध्यप्रदेश उत्तरोत्तर उन्नति कर रहा है। वे जो योजनाएं चला रहे हैं, उस पर तेजी से अमल हो रहा है। जबकि सब कुछ इसके ठीक विपरीत हो रहा है। मृतप्राय विपक्ष के रहते यह खुशफहमी हो सकती है कि शिव बाबा के राज में स्वर्णिम मध्यप्रदेश का सपना साकार हो रहा है। हालिया विधानसभा चुनाव के पूर्व जो वायदे जनता से किए हैं, उसके आधे वायदे भी पूरे हुए तो सरकारी खजाना खाली हो जाएगा। संपूर्ण प्रदेश में बिजली है नहीं। उत्पादन लगातार गिर रहा है। अफसरशाही की अकर्मण्यता और भ्रष्टता के कारण बिजली बोर्ड दिवालिया होने की कगार पर है। इन्हीं भ्रष्ट अफसरों ने शिवराज सिंह को बता दिया कि केन्द्र सरकार द्वारा कोयले की सप्लाई नहीं किए जाने के कारण प्रदेश में बिजली उत्पादन नहीं हो पा रहा है। भोले बाबा को यह बात जमी और वे निकल पड़े कोयला मार्च निकालने। चूंकि विपक्ष बौद्धिक स्तर पर कंगाल है, लिहाजा कोयला मुद्दा बन गया। अब बात कोयले पर हो रही है तो कांग्रेस विज्ञापन दे-दे कर खण्डन कर रही है। पिस रही है जनता! वाह रे शिव के भ्रष्ट अफसरों, पहले बिजली बोर्ड को लूट लिया और अब भोले-भाले शिव को कोयले की पुड़िया पकड़ा दी। जनता लाचार है। सभवत: राजनेता यह मानते हैं कि जनता इस हेतु अभिशप्त है। बिजली के बाद मध्यप्रदेश में सर्वाधिक संकट पानी का है। जलसंकट यों उपजा? इस प्रश्न पर विचार होना चाहिए। दिग्विजय सिंह के कार्यकाल के पानी रोको कार्यक्रम का नाम शिवराज कार्यकाल में जलाभिषेक हो गया। इन दोनों कार्यक्रमों में करोड़ों करोड़ रुपए ज़ाया हुए, लेकिन नतीजा सिफर रहा। नौकरशाह और ठेकेदार मालामाल हो गए और जनता रो रही है पानी के नाम पर। प्रदेश की आधी से द्गयादा आबादी को पानी नसीब नहीं हो रहा है। अब मुझे डर है कि शिवराज के चाटुकार, भटैत उन्हें इंद्रदेवता के खिलाफ आंदोलन अथवा सत्याग्रह करने की सलाह नहीं दे बैठें। प्रदेश में औद्योगिक निवेश बढ़ाने के नाम पर अब तक पांच इंवेस्टर्स मीट्स के आयोजन हो चुके हैं। प्रदेश के हालात और अफसरों की चढ़ौत्री की मांग सुन उोगपति भाग रहे हैं। प्रदेश का बेरोजगार रोजगार की तलाश में पलायन कर रहा है। प्रदेश के बेरोजगार भी बेवकूफ हैं। उन्हें अल होना चाहिए। अगर आज भी वे मुख्यमंत्री के निकटस्थ युवा मोर्चा के शार्गिद बन जाएं, तो उन्हें धमकाने, चौथ वसूली, बिल्डर माफिया, रेत माफिया, खदान माफिया के यहां पूर्णकालिक अथवा अंशकालिक नौकरी मिल सकती है। प्रदेश में हैरान, परव्शान, हलाकान लोग द्गयादा नहीं, मात्र ह्ण0 प्रतिशत है। उन्हीं लोगों में हाहाकार मचा हुआ है। मंत्री गदरा रहे हैं और अफसरान डाकाशाही में मस्त हैं। शिवराज स्वयं लाड़ली लक्ष्मी और कन्यादान योजनाओं में लगे हुए हैं। भाजपा का सांगठनिक ढांचा कतिपय मलाईदार विभागों के दलालों की भेंट पूजा से चल रहा है। सत्ता, संगठन और अफसरान के कुनबों में शाइनिंग मप्र की धूम है। सभी फीलगुड में हैं। जनता मंदी के दौर में विवश है। लोकतंत्र में स्थिति का व्यंग्य यह है कि व्यंग्य की स्थिति बनी हुई है। शिवराज जब से दोबारा मुख्यमंत्री बने हैं, तब से वे नई घोषणाएं करने और पुराने कार्यों को पूर्ण करने के दिशा-निर्देश दे रहे हैं। हर कार्यक्रम में वे रटे-रटाए भाष्ण देते हैं। उनका भाष्ण निस्पृह भाव से होता है, लेकिन उनके ही अफसर और मंत्री उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। एक नहीं, लगभग तीन वरिष्ठ मंत्री सार्वजनिक तौर पर कहते हैं कि मुख्यमंत्री का चेहरा देखना ही हमें पसंद नहीं है। हमारी जो चर्चा होती है वह सिर्फ केबिनेट में होती है। चार-पांच नए नवेले उत्साही लाल मंत्रियों को छोड़कर ऐसा कोई मंत्री नहीं है, जो शिवराज से नियमित संवाद करता हो। दो कौड़ी की (अभिशप्त) जनता को छोड़कर जब सभी फीडगुड में हैं, तो शिव से उनके मंत्री नाखुश यों हैं? सांगठनिक ढांचे में भी दो स्वयंभू कुशाभाउओं को छोड़कर सभी पदाधिकारी मुख्यमंत्री से सीधे संवाद की स्थिति में यों नहीं हैं? कहीं न कहीं लोचा है। इसमें ईमानदार अंत:करण वाले शिवराजसिंह की गलती नहीं है। दरअसल भाजपा की रूपवान, धनवान साईं रानी के भोग का असंतुलन है। जो मंत्री, विधायक, संगठन के पदाधिकारी और कार्यकर्ता भाजपा की भ्रष्ट साई रानी में भोग से वंचित हैं, वे शिव का मुंह नहीं देखना चाहते। जो भोग रहे हैं, वे खुश हैं। रघुवीर सहाय की ''लोकतंत्र का संकट"" नामक यह कविता मौजूदा हालात पर एकदम मुफीद है-पुरुष् जो सोच नहीं पा रहेकिंतु अपने पदों पर असीन हैं और चुप हैंतानाशाह या तुहें इनकी भी ज़रूरत होगीजैसे तुहें उनकी है जो कुछ न कुछ ऊटपटाँग विरोध करते रहते हैंसब व्यवस्थाएं अपने को और अधिक संकट के लिए तैयार करती रहती हैंऔर लोगों को बताती रहती हैंकि यह व्यवस्था बिगड़ रही हैतब जो लोग सचमुच जानते हैं कि यह व्यवस्था बिगड़ रही हैवे उन लोगों के शोर में छिप जाते हैंजो इस व्यवस्था को और अधिक बिगाड़ते रहना चाहते हैं योंकिउसी में उनका हित है लोकतंत्र का विकास राद्गयहीन समाज की ओर होता हैइसलिए लोकतंत्र को लोकतंत्र में शासक बिगाड़कर राजतंत्र बनाते हैं। ( लिखते हैं तो सच सामने आता है और सच को किसी लाउडस्पीकर की ज़रूरत नहीं होती ।)
1 Comments
अच्छा विश्लेषण करता हुआ आलेख।
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