समाज के अंतिम सबसे गरीब व्यक्ति को न्याय और जीने का अधिकार देने के लिए ही हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रजातंत्र की परिकल्पना की थी एवं तदनुसार उसकी रुपरेखा भी निर्धारित की थी पर सामाजिक राजनीतिक व आर्थिक स्वतंत्रता के लिए तरसते आम आदमी को उसकी अपेक्षा के अनुरूप अब तक क्या मिल पाया हैं आज देश प्रदेश और समाज को उन्नति व समृद्धि की राह पर ले जाने का जिम्मा जिन राजनीतिक दलों व नेताओं पर हैं वे ही अपने स्वार्थों के लिए समाज को तोड़ रहे हैं जाती धर्म और भाषा के नाम पर विभाजित समाज कैसे हमारे प्रजातंत्र को परिष्कृत करेगा यह सवाल तो देश के इन आकाओं से ही पूछा जाना चाहिए
जब चुनाव आते हैं तो राजनीतिक दल समाज को विभाजित करने का काम कुछ ज्यादा ही तेजी से करने लगते हैं इसके साथ ही साथ वे तरह-तरह के लुभावने वादे भी मतदाताओं से करते हैं] ताकि उनके वोट हड़पे जा सके पर चुनाव के बाद देश के यही कर्णधार और प्रतिनिधि जनता को उसकी किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं और वह अगले पांच सालो तक वादों के पुलिंदों को लेकर इन नेताओं के दर पर भटकाती रहती हैं यानि हकीकत यही हैं कि किसी गाँव की गली में क्रिकेट खेलते नौनिहालों की आँखों के सपनो से हमारे कर्णधारो को कोई सरोकार नहीं होता हैं गाँव की सूखती नदी के पनघट से पानी लाती हुई किसी रमणी की समस्याओं के समाधान के लिए हमारे नीति-नियंता कतई चिंतित नहीं होते हैं अकाल से सूखती फसलो और उजड़ते हुए गाँवों के श्रमिकों की भूख भ उन्हें चिंतित नहीं कर पाती हैं
प्राकृतिक विपदाओं और मानव निर्मित त्रासदियों कि कारण आत्महत्या को मजबूर होते किसानो की चीत्कार हमारे देश के जनप्रतिनिधियों तक पहुंचती तो है पर वे उसे सुनना नहीं चाहते अहमदाबाद सूरत मुंबई आदि महानगरो में आतंकियों द्बारा किए नरसंहारों से नाम होने वाली आँखों का आक्रोश प्रजातंत्र के पहरेदारों को दहला नहीं पा रहा हैं चुनावी मौसम में अपने-अपने दरबो से निकले हुए नेता बरसाती मेंढक की तरह अपने-अपने राग अलाप तो रहे हैं पर इस कर्णभेदी शोर के बीच जनता परेशान हैं और भ्रमित भी कि ये नेता चुनावों के दौरान भी उसकी समस्याओं को मुद्दा क्यों नहीं बना रहे हैं? आज़ादी के ६२ वर्षो के बाद की यह स्थिति देश की जनता के लिए एक त्रासदी हैं
लगता यह भी हैं कि यह स्थिति बदलेगी भी नहीं जो राजनीतिज्ञ केवल सत्ता के पीछे भाग रहे हो वे देश की समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे राजनीतिज्ञों की नीयत समझने के लिए केवल इतना जानना काफी हैं कि न तो आतंकवाद चुनावी मुद्दा बन पाया हैं और न ही मंदी महंगाई बेरोज़गारी बढ़ते हुए अपराध और भ्रष्टाचार भी इन सब मुद्दों से आम जनता का सीधा जुडाव हैं क्योंकि आतंकी हमलो का पहला शिकार वही होती हैं ठीक इसी तरह मंदी के कारण जिन लोगो की नौकरी जा रही हैं वे भी देश के आम नागरिक ही हैं और सरकारी दफ्तरों में जिनका वाजिब काम भी रिश्वत न देने की स्थिति में नहीं हो पाता हैं वे लोग देश के आम नागरिक ही होते हैं पर राजनीतिज्ञों के लिए आम नागरिको की ये समस्याएं जब कोई चुनावी मुद्दा ही नहीं हैं तो उनके समाधान की बात सोचना भी इसे में फिजूल ही हैं हाँ इस स्थिति का दोष केवल राजनीतिज्ञों को ही नहीं दिया जा सकता हैं आखिर जनता को भी तो अब तक देश के प्रति अपने कर्तव्यों को समझने लायक हो जाना चाहिए था वह जागरूक क्यों नहीं हैं? अगर संविधान निर्माताओं का सपना पूरा करना हैं तो अब जनता को जागरूक होना ही पड़ेगा
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