देश में कानून बनाने और निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व दी जाने का मुद्दा आज भी लटका हुआ हैं। सवाल उठता है कि जब महिलाओं को आधी दुनिया कहा जाता है या इस धरती की आबादी में लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा महिलाओं का है तब उन्हें 33 प्रतिशत आरक्षण देनेदके प्रस्ताव पर इतनी अडंगेबाजी क्यों चली आ रही हैं। भारत में महिलाओं की 33 प्रतिशत संसदीय भागीदारी की अवधारणा का सम्बंध है तो यह 1995 में संयुक् राष्ट्र की चौथी विश्र महिला कान्फ्रेंस (बीजिंग) से अस्तित्व में आयी हैं। कान्फ्रेंस में यह कहा गया थाकि प्रजातांत्रिक देशों में महिलाओं प्रजातांत्रिक संस्थाओं में कम से कम 33 प्रतिशत की भागीदारी होनी चाहिए।उल्लेखनीय है कि इस कान्फेंस में 33 प्रतिशत को कम से कम माना गया था। लेकिन 33 प्रतिशत की यह भागीदारी न केवल असंभव दिख रही है बल्कि पुरूषवादी वर्चस्व की शिकार भारतीय राजनीति में यह एक असम्भव लक्ष्य बन गया है। यह कहना गलत न होगा कि लोकतांत्रिक प्रणाली स्थापित हो जाने से ही उसमें महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो जाती। इसका सबसे बडा उदाहरण स्वयं हमारा देश भारत हैं। दुनिया के सबसे बडेलोतंत्र होने का दावा करने हिन्दुस्तान में महिलाओं की न केवल संसदीय भागीदारी बहुत कम है बल्कि चुनावों में हिस्सेदारी भी बहुत कम हैं। आज भी उनके वोट पर प्राय : पिता , भाई और पति का ही अधिकार रहता हैं। सवाल उठता है कि अगर महिलांए आधी दुनिया हैं,महिलाएं अगर दुनिया की आबादी में पचास प्रतिशत या इसके आसपास हैं तो फिर उन्हें 33 प्रतिशत का ही राजनीति आरक्षण क्यों दिया जायें ? विडम्बना यह है कि पचास प्रतिशत की बात तो दूर,पुरषवादी वर्चस्व से संचालित राजनीति में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत भागीदारी भी सुनिश्रित नहीं हो पा रही। सन 1994 में अंतरसंसदीय संघ की बैठक पेरिस में हुई थी। उसमें एक कार्ययोजना स्वीकार की गयी जिसका उद्देश्य राजनीतिक जीवन में पुरूषों और महिलाओं की भागीरी के बीच जो असंतुलन ह उसे दूर करना था। कार्य योजना में कहा गया था कि राज्यों को अन्दरूनी तौर पर सकारात्मक कदम उठानेचाहिए ताकि लोकतंत्रमें महिलाओं की प्रभावशाली भागीदारी सुनिश्चित हो सके। यह केवल अंतरसंसदीय संघ का ही विचार नहीं है बल्कि सनृ 1919 में बने लीग ऑफ नेशन और इसी कीबुनियाद में 1945 में बने संयुक राष्ट्र संघ की मूलभूत अवधारणा भी यही है कि अगर लोकतंत्र को मजबूत करना है और दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था का भविष्य सुनिश्चित करना है तो महिलाओं की भागीदारी अनिवार्य है।इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि उक्त सारे विचार और आदर्श महज किताबों, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मंचों,सेमिनारों और गोष्ठियों तक ही सीमित हैं। हकीकत यह है कि दुनिया के किसी भी देश में महिलाओं को पचास प्रतिशत भागीदारी हासिल नहीं। यहां तक कि विकसित यूरोपीय देशों और अपने आपको मदरलैंड ऑफ डेमोक्रेसी कहने वाला ब्रिटेनभी अपनी संसद में महिलाओं को पचास प्रतिशत भागीदारी सुनिश्रित नहीं करसका। दुनिया में जिन देशों में महिलाओं को आज सबसे ज्याद प्रतिनिधित्व मिला है उनमें स्वीडन (40 प्रतिशत), नार्वे (39 प्रतिशत), फिनलैंड (33 प्रतिशत),डेनमार्क (33 प्रतिशत), और हालैंड( 31 प्रतिशत) शामिल हैं जबकि ब्रिटेन और अमेरिका में महिलाओं की संसद भी भागीदारी बहुत मामूली हैं। ब्रिटेन में 9.5 प्रतिशत और अमेरिका में 11 प्रतिशत महिलाओं कों संसद में भागीदारी हासिल है। रूस में यह 10.2 प्रतिशत के आसपास है तो भारत में महिलाओं की भागीदारी सात प्रतिशत से भी नीचे हैं। हमसे भी नीचे दुनिया के दर्जनों देश हैं। यहां तक कि फ्रांस जैसे देश में भी महिलाओं की भागीदारी 6.4 प्रतिशत के आसपास ही हैं। जो महिलाएं राजनीति में सफल हुई हैं उनकी सफलता उनकी अपनी योग्यता और मेहनत से संभव हुई। शेष सभी चूल्हे - चौके तक सीमित हैं। यदि महिलाएं एक जुट होकर अपनी ताकत दिखाएं तो किस राजनीतिक दल में साहस होगा जो उनके रास्ते पर रोडे अडा सके।