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वाणी ऐसी बोलिए

जैसे - जैसे भारतीय लोकतंत्र परिक्व हो रहा है, हमारे राजनेता अपना आपा ,खो रहे हैं। चुनाव प्रचार के दौरान उनकी भाषा से नहीं लगता कि वे भारत जैसे बडे और अनूठे लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमने, अमेरिकी चुनाव प्रचार को देखा, यह भी देखा कि किस तरह से नेताओं ने एक - दूसरे पर आरोप - प्रत्यारोप लगाए। अंत में चुनाव परिणाम वाले दिन किस किस तरह से दोनों नेताओं ने समझदारी के साथ अपने - अपने समर्थकों के समक्षभाषण किया। हम यह नहीं कहते कि हमें अमेरिका बन जाना चाहिए। वह हम हो भी नहीं सकते, लेकिन जहां से हमने अपनी शासन - व्यवस्था ली है, उस ब्रिटेन का ही अनुकरण कर लें। किस तरह स्वस्थ बहस के बाद वे साथ - साथ भोजन करते हैं, लेकिन इस बार के चुनाव प्रचार में हमने देखा कि चुनावी आचार संहिता को किस तरह तार - तार किया जा सकता हैं। इसलिए सर्वेच न्यायालय में वरूण गांधी को यह वचन देना पड रहा है कि वह आगे से भडकाऊ भाषा का इस्तेमाल नहीं करेंगे। निर्वाचन आयोग को सभी राजनीतिक दलों को यह हिदायत देनी पडी कि वे किसी व्यक्ति, वर्ग या समुदाय के प्रति नफरत फैलाने वाली भाषा का इस्तेमाल न करें। यदि हमारे राजनेता अपनी भाषा का अवमूल्यन कर रहे हैं, तो निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस पर अंकुश लगाए। वह एक सांविधानिक पीठ हैं, दायित्व देश में लोकतांत्रिक चेतना का प्रसार करना भी हैं। नब्बे के दशक से पहले उसे चचुनाव संपन्न कराने वाली एक प्रशासनिक संस्था भर मान गया था, लेकिन टीएन शेषन ने उसमें प्राण फूंके और राजनीतिक दलों को चुनाव लडने के कायदे सिखाए। शुरूआत में लगा कि वह धिायिका से टकराव ले रहे हैं, लेकिन परिणाम देखने पर महसूस हुआ कि वह अपनी जगह पर सही थे। उनके बाद जो भी मुख्य निर्वाचन आयुक्त आए, सबने कुछ न कुछ छाप छोडी। हालांकि हमारे निर्वाचन आयुक्त के पास बहुत ज्यादा वैधानिक अधिकार नहीं हैं। ही कि राजनीतिक दलों कों अनुशासित कर सकें। वरूण गांधी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हाने और गिरफतारी के बावजूद बिहार में सबडी देवी, लालू यादव, सुषमा स्वराज, अमर सिंह, पप्पू यादव वाइको, नरेंद्र मोदी, ठाकरे बंधुओं और डी श्रीनिवास जैसे नेताओं ने जैसे भडकाऊ भाषण दिए हैं या अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कियाहै उसकी निदां ही की जा सकती हैं। यदि इस प्रवृति पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो इससे हमारा लोक तंत्र मजाक बनकर रह जाएगा। निर्वाचन आयोग की दिक्कत यह है कि उसे अपने निर्देशों के अनुपालन के लिए राज्य या केंन्द्र सरकार के कर्मचारियों पर निर्भर रहना पडता हैं। बावजूद इसके कुछ दिनों के लिए ही सही, उसके हाथ में कार्यपालिका की शक्तियां आ जाती हैं, इसलिए अपने निर्देशों का पालन कराने के लिए वह अपनी मशीनरी को दुरूस्त करे और स्वस्थएवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करे।

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1 Comments

  1. अमेरिका और इंगलैंड की नकल क्‍यों ... कडवी वाणी बोलने की हमारे अपने संस्‍कार इजाजत देते हें क्‍या ?

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