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भय पदा कर वोट बटोरने की राजनीति

भारतीय जनता पार्टी पर यह आरोप लगता रहा है कि वह हिंदुत्व की बात करके हिंदू कटरवाद पर जोर देती हैं। जो अंतत : अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव पैदा करती हैं। उधर, भाजपा के लोग धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण का विरोंध करते हैं। उनका कहना है कि जिस तथाकथित धर्मनिरपेक्षता पर सेकुलरिस्ट जोर देते हैं। वह वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा हैं। जिसका असल मकसद मुस्लिम मतदाताओं में असुरक्षा का भाव पैदा कर उन्हें अपनी ओर ख्ींचे रखना हैं। यह छहा धर्मनिरपेक्षता हैं। पहले भारतीय राजनीति में दो ही विचार दिखाई देते थे। एक ओर धर्मनिरपेक्षता विचारधारा वाले लोग थे। जो अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा पर भीर जोर देते और उनका बचाव करते थे। दूसरी ओर वह लॉबी भी जो धर्म निरपेक्षता के नाम पर बहुसंख्यकों की अनदेखी किए जाने से राज रहती थी, लेकिन आज स्थिति बदल गई हैं। भारतीय राजनीति में धर्म, सम्प्रदाय, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता की भावना इतना गहराई तक धॅस चुकी है कि इसके सामने मुद्दे, नीतियां और कुशल नेतृत्व क्षमता आदि गौण हैं। सांेच की विधानसभा और संसद तक पहुंचने की सीढी के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा हैं। देश में जब से जातिवादी राजनीति का प्रभाव बढा स्थिति और विकट हुई है। इससे हमारे लोकतंत्र को जो नुकसान हो रहा है, उसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की हैं। राष्ट्रीय स्तर सक्षम है नेतृत्व नहीं उभर पा रहा। धर्म, जाति, सम्प्रदाय भाषा, क्षेत्रवाद की राजनीति के बूते चुनाव जीतकर विधायिका में पहुंचे लोगों का व्यवहार अंगभीर हैं। वह असहनीय भी होता जा रहा हैं। राजनीतिक दल चुनावों के लिए उम्मीदवारों का चयन करते समय व्यकि की योग्यता को महत्व देने की बजाय यह देखने लगे हैं। कि क्षेत्र में मतदाता किए धर्म, सम्प्रदाय, जाति अथवा किस भाषा को बोलने वाला हैं। यह दृष्टिकोण केवल प्रत्याशी के चयन तक सीमित नहीं रहता। चुनाव प्रचार का आधार भी यही वर्ग विभाजन होने लगा हैं। धर्म और जाति समूहों को उन्हीं की बिरादरी के प्रभावशाली लोगों से प्रभावित करने की कोशिश होती हैं। मतदाताओं में धीमे जहर की तरह धर्म, जाति सम्प्रदाय, क्षेत्रवाद और भाषा की राजनीति का जहर कितने सुनियोजित ढंग से भरा गया है इसका प्रमाण चुनाव परिणामों से मिल चुका हैं। राजनेता चुनावी भाषण देते समय जातीयता और साम्प्रदायिकता को कोसते हैं। उदाहरण के लिए पिछले दिनों राजद नेता लालू प्रसाद यादव द्वारा लिए उस भाषण को याद करें जिसमें उन्होंनं कहा था कि वह गृह मंत्री होते तो वरूण गांधी को रालर से नेस्तनाबूद करवा देते। इस तरह भाषा और शब्दों का उपयोग मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर आकृष्ट करना रहा होगा। दरअसल राजनीति में ऐसे कईविषैले नाग आ गए हैं तमाम हथकण्डे अपनाकर जातीय और साम्प्रदायिकता की भावनाओं को उकसाते हैं। उनके मुह से निकला जहर हमारे लोकतंत्र की जडों कोलगातार कमजोर करता आ रहा हैं। तथाकथित समाजवादी और सेकुलर नेता पिछडी जातियों और अल्पसंख्यको पर अत्याचार की बातें करते हैं। प्रतिद्वन्द्वी को दोषी ठहराकर स्वयं को सच्चा हमदर्द साबित करने की कोशिशें की जाती हैं। मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव बात - बात पर साम्प्रदायिक ताकतों का खौफ खडा करने की कोशिश करते हैं। इसका उद्देश्य मुसलमानों को भयभीत करके अपने से जोडे रखना होता हैं। स्वयं को पिछडों, दलितों, मुसलमानों का सबसे बडा हितचिंतक साबित करने के लिए बरसों से मुलायम, लालू,पासवान और मायावती के बीच होड सी चल रही हैं। यह अलग बात है कि आज मुलायम, लालू और पासवान एक ही थाली में खाते दिख रहे हैं। राजनेता जब अल्पसंख्यकों और पिछडों, दलितों की बात करें, तब समझ जाइये कि लक्ष्य वोटों को बटोरना हैं। यह काम भय पैदा करके किया जाता हैं। कोई बता सकता है कि सिर्फ दो राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलो के टिके रहने का करण क्या हैं। इनमें स अधिकांश धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्रीयता और जातीय भावनाओं को भडकाकर अपने लिए जगह बनाये हुए हैं। चुनाव परिणामों की समीक्षा अथवा चुनावी विश्लेषणों के समय टेलीविजन और रेडियो पर विचार व्यक करने वाले राजनीतिक विश्लेषक और चुनाव समीक्षक अक्सर कहते हैं। कि देश का मतदाता परिपक्त हो रहा हैं। इस तरह के दावे को भला कैसे सच मान लिया जाए। ऐसा अगर होता तो धर्म, सम्प्रदाय, जाति अथवा क्षेत्रीयता की भावनाएं भडकाकर सियासी दुकान चलाने वाले आज दिखाई नहीं देते। राजनेताओं ने अस्सी फीसद मतदाताओं को गभींर चिंतन से दूर ही कर दिया हैं। यह बात गैर मतदाताओं के बीच भी दिखाई देने लगी हैं। छात्र संगठनों से कर्मचारी यूनियनों तक में जातीय समूहों के आधार नए - नए संगठन दिखाई दे जाते हैं। ऐसा होना क्या इस लोकतंत्र के हित में हैं। किसी ने बडी सटीक टिप्पणी की हैं। उनके अनूसार भारत की पूरी राजनीति वोट की राजनीति बनकर रह गई हैं।

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