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शर्म तुमको मगर नहीं आती

हिन्दुस्तान को खुद पर शर्म कब आएगी। कितनी शत्रो अयूब मरेंगी, तब इस देश की नीद खुलेगी।लाखों शत्रो रोज अंग्रेजी की प्राणलेवा चक्की में पिस रही हैं। लेकिन उनकी कराह हमारे कानों तकनहीं पहुची, क्योंकि वे मरती नहीं हैं। बेचारी शत्रो मर गई, तभी देश को पता चला कि एक अंग्रेजी शब्द की स्पेलिंग गलत बोलने के कारण उसकी जान चली गई। 1 हमारे हिंदी अखबारों और नेताओं ने इस मूल तथ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया हैं। वे सिर्फ इसे शिक्षिका की ज्यादती कहकर निपटा रहेहैं। शत्रों के मां - बाप को कुछ मुआवजा देकर और शिक्षिका को नौकरी से हटाकर सब चुप हो जाएंगे।यह चुप्पी हत्यारे की चुप्पी हैं। शत्रों की हत्या के लिए सब जिम्मेदार हैं। शत्रो अकेली नहीं हैं। शत्रो की ही तरह पिछले साल नोएडा और वाराणसी के दो नौजवानों ने आत्महत्या की थी। उसका कारण भी अंग्रेजीही थी। शत्रो की छोटी बहन (प्रत्यक्ष गवाह), पिता अयूब और डॉक्टर जकी अहमद तीनों ने कहा है कि शत्रोको सजा मिलने का कारण अंग्रेजी हैं। इसमें शक नहीं कि कोई और शिक्षिका होती तो वह इतनी कडी सजा नहीं देती और इस शिक्षिका को भी क्या पता था। कि इस सजा से शत्रो की मौत हो जाएगी लेकिन यहां विचारणीय मुद्दा यह हैं। कि किसी भी शिक्षक या शिक्षिका के लिए अंग्रेजी इतना बडा मुद्दा क्यों हैं। वे इतना बडाखतरा क्यों मोल लेते हैं। इसका मूल कारण हीन - भाव हैं। स्वयं शिक्षक यह मान बैठे हैं कि जिसे अंग्रेजी नहीं आती, वह बिल्कुल निरक्षर है, अशिक्षित है, असभ्य हैं। वह इंसान होने के लायक भी नही हैं। वह जानवर हैं। अगर वह जानवर है तो उसके साथ जानवर जैसा ही बर्ताव करो। शत्रो के मरने का कारण यही हैं। शिक्षकों को पता होता हैकि जिन बच्चों की अंग्रेजी कमजोर होती है उनेक माता - पिता कौन होता हैं। वे गरीब, पिछडी, छोटी जात, ग्रामीण और अल्पसंख्यक होते हैं वे क्या कर लेंगे। अगर उनके बच्चों को गालियों देंगे, मारेंगे - पीटेंगे और मार भी डालेंगे तो उनके लिए बोलने वाला कौन हैं। समाज में जो बोलने वाले हैं। जिनके मुंह में जुबान है वे नेता हैं, उघोगपति हैं अफसर है वकील है डॉक्टर है पत्रकार हैं। उनके बच्चे भी अंग्रेजी से परेशान है लेकिन वे सब अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बढते हैं।उनके बच्चों को कौन छू सकता है इन बच्चों से खुद श्यिक्षक डरे रहते हैं। शिक्षकों की मोटी तनख्वाहें, असीम सुविधाए और सम्मानउन्हें अत्याचार करने से रोकते हैं। लेकिन देश के सरकारी स्कूलों में करोडों बच्चों पर रोज बेइंतहा जुल्म होते हैं। बेजुवान बच्चे कुछ कह नहीं पाते। वे दुनिया के सबसे असहाय सर्वहारा हैं। इन सवहाराओं की सुध लेने वाला इस देश में कोई नही। इन बच्चों से अगरआप उनकी पढाई के बारे में बात करें तो आप दंग रह जाएंगे। वे बताते हैं कि उन्हें जो पॉंच छह विषय पढने पडते हैं। उनमें सबसे ज्यादासमय अकेले अंग्रेजी पर लगाना पडता हैं। कुछ बच्चों ने मुझे बताया कि सभी विषयों पर हम जितना समय लगाते हें। उससे भी ज्यादा अकेली अंग्रेजीपर लग जाता हैं। फिर भी नतीजा क्या होता हैं। लाख रटने के बावजूद स्पेलिंग और ग्रामर की गलतियां रह जाती हैं। कक्षा में हमेंशा नीचे देखना पडता हैं।मन में यह भाव भर जाता हैं। कि हम बिल्कुल निकम्मे हैं। हम में कोई योग्यता ही नहीं हैं। हम किसी काम के ही नहीं हैं। यदि दूसरे विषयों में हमारे अच्छे नम्बर आते हैं। तो भी हमें उसका कोई श्रेय नहीं मिलता बचपन में पैदा हुआ यह भय पूरे जीवन को खोखला कर देता हैं। जिस भवन की नींव ही खोखली हो जाए, उसे आप कितना ऊंचा उठा सकते हैं। 61 साल की भारत की शिक्षा का भवन कितना शकिशाली हैं, इसका अंदाज आपको इसी बात से लग सकता है कि हर साल 11 करोड बच्चें हमारी प्राथमिक शालाओं मेंभर्ती होते हैं और बीए तक पहुंचते उनकी संख्या सिर्फ 30 - 35 लाख रह जाती हैं। 95 प्रतिशत बच्चों का क्या होता हैं आगे पढने क्यों नहीं हैं वे क्यों भाग खडें होते हैं इसका कारण गरीबी वगैरह तो है ही, लेकिन सबसे बडा कारण है अंग्रेजी की थुपाई। अंग्रेजी की अनिवार्यता बच्चों का प्रतिदिन दम घोटती हैं, उनमें हीनता का संचार करती हैं, और उनके दिल - दिमाग निराशासे भर देती हैं। वे जानते हैं कि वे किनती ही मेहनत करें, वे अंग्रेजी में फेल हो जाऐगें। हायर सेकेन्डरी बोर्ड के आंकडे बतातें है कि सबसे ज्यादा अगर किसी विषय में बच्चे फेल होते हैं तो अंग्रेजीमें होते हैं। जो बच्चे किसी तरह पास हो जाते हैं, उन्हें पता होता है कि उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी, क्योंकि उनकी अंग्रेजी कमजोर है और भारत में हर अच्छी नौकरी पाने इके लिए अंग्रेजी अनिवार्यहैं, अगर बीए पास करके भी चपरासी या खलासी की नौकरी ही करनी है तो पढाई बेकार हैं।

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