दारूल उलूम देवबंद ने लोकसभा चुनाव में निष्पक्षता दिखाकर एक अच्छा उदाहरण पेश किया हैं। यह अपने आप में महत्वपूर्ण बात है कि देश की प्रसिद्व इस इस्लामी संस्था ने एक बार फिर कटरता की बजाय लोकतांत्रिकता का परिचय दिया हैं। दारूल उलूम ने कहा है कि वह एक शिक्षण संस्थान हैं। इसलिए उनकी ओर से किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन या विरोध नहीं किया जा रहा हैं। उसके द्वार सबके लिए खुले हैं। गौरतलब है कि मौजूदा चुनावी माहौल में कई राजनीतिक दलों के नेता दारूल उलूम जा चुके हैं लेकिन संस्था की ओर से किसी का समर्थन या विरोध नहीं किया गया हैं। दारूल उलूम का यह रूख उन धार्मिक संस्थाओं और संगठनों के लिए एक नजीर है, जिन्होंने ऐसे मौकों पर फतवे जारी किये हैं। इस संस्थान के इस रूख से यह स्पष्ट है कि वहां के विद्वान लोकतंत्र की अवधारणाओं में पूरी आस्था और विश्रास रखते हैं। किसी भी दल को समर्थन नहीं देने से मुस्लिम समुदाय के मतदाता अपने पसंदीदा उम्मीदवार या पार्टी को अपना मत बिना किसी दबाव के दे सकेंगे। पिछले कई आम चुनावों में कुछ खास संस्थाएं पार्टी विशेष को अपना मत देने के लिए मुस्लिम समुदाय पर फतवे के जरिए दबाव डालते रहे हैं। जबकि लोकतंत्र की मजबूती और बेहतरी के लिए ऐसे फतवे जारी करना कई बार सही नहीं होता और मतदाताओं के बीच भ्रांतिपूर्ण स्थिति पैदा होती हैं। एक बेहतर लोकतंत्र के लिए किसी भी धर्म और संप्रदाय द्वारा किसी भी प्रकार का दबाव घातक हो जाता हैं। इससे कहीं न कहीं लोकतंत्र की स्वस्थ अवधारणा को भी चोट पहुंचती हैं। दारूल उलूल देवबद के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए। गौरतलब है कि दारूल उलूम ने इससे पहले भी अनेक ऐसे फैसले लिये हैं, जिससे माहौल को सदभावपूर्ण बनाने में मदद मिली हैं। अनेक बार विवादास्पद मसलों पर धार्मिक आदेशों की सही व्याख्या कर इस संस्था ने पूरे समुदाय को दुविधापूर्ण स्थिति से उबारा हैं। दारूल उलूम का यह फैसला भी मुस्लिम मतदाताओं को अपनी मर्जी से वोट देने का रास्ता प्रशस्त करता हैं। किसी भी धर्म या समुदाय विशेष को ऐसी निष्पक्षता से प्रेरित होने की जरूरत हैं। इससे लोकतंत्र और मजबूत होगा।
0 Comments