Header Ads Widget

 


Responsive Advertisement

copy-paste

आईपीएल बनाम राष्ट्रीयता

चारों ओर माहौल गर्म है, कहीं शिल्पा खुश तो कहीं प्रीती, रोने को तैयार हैं तो बस हमारे शाहरुख! ललित मोदी के उर्वर मस्तिष्क से पैदा हुए क्रिकेट के इस वामनावतार में एक झटके में ही हिन्द महासागर की विस्तार लांघ ली और चुनौती दे दी पवनपुत्र को और साथ ही पैदा कर दिया एक अपनी तरह की अनोखी राष्ट्रीयता को। बाजार खुश है और जनता जनार्दन भी साथ में ठुमका लगा रही है कि अब तो जीत हमारी है। बंगाल को हमने तो हरा दिया आखिर मराठा गौरव हमसे है और फिर दिल्ली की जवां मर्दी के सामने बेचारे औरों की क्या बिसात! हम हिन्दुस्तानी कम, मराठा ज्यादा या फिर राजपूताना कम तो द्रविड़ क्षेत्र का दम खम रखने वाले ज्यादा हैं खेल के बहाने धन की शर्मिन्दगी से की जा रही नुमाइश अनेकों सवालात पैदा तो करती ही है साथ ही हमें यह भी सोचने पर विवश करती है कि क्या हमारी भारतीय होने की पहचान कहीं पीछे तो नहीं छूटती जा रही। इन सब के पीछे कुछ ऐसे सवालात भी हैं जो वेताल की तरह आज भी कंधे पर टिकने को तैयार नहीं। एक सवाल तो यह है कि आई पी एल के मैचों को भारत से सरकाकर दक्षिण अफ्रिका से जाना। इसने हमारी जहाँ सुरक्षा मुहैया कराने के दावों की मिट्टी पलीद कर दी, वहीं यह प्रश्न भी पैदा किया कि जब हमारी सरकार मुठ्ठी भर खिलाडियों को सुरक्षा मुहैया नहीं करा सकती तो अवाम का क्या होगा।सवाल सिर्फ़ इतना नहीं है कि हमारी सुरक्षा की पोल पट्टी खुली बल्कि उससे भी बडा़ सवाल यह है कि इसे लेकर जनता में कोई प्रतिक्रिया भी नहीं हुई और किसी पार्टी ने इसे मुद्दा बनाने लायक भी नहीं समझा, चुनाव में नहीं तो कम से कम देश की साझा जिम्मेदारी ही समझ कर। दरअसल, यह पैसे का खेल है और इसमें किसी भी दल को क्या आपत्ति हो सकती है जब उसे भी इसमें कुछ अपने हिस्से के लिए हरे हरे नोट दिखें। कहने की बात नहीं अब सुर्खियाँ और मीडिया का न्यूज सेंस किसानों की आत्म हत्या बनता ही नहीं। दरअसल अब न्यूज सेंस की सोंच और तय करने के तरीके, समी करण सभी कुछ बदल दिए हैं बाजार की शक्तियों ने। बाजार तय कर रहा है कि क्या आना है सुर्खियों में और कहाँ किस खबर को जगह मिलनी है। संस्कृति की नई परिभाषा गढ़ने के नाम पर मीडिया इतना आगे निकल चुका है कि अब उसे न तो पब कल्चर में ही कोई बुराई दिखती है और न ही गे मैरिज में ही। आखिर, इन्हें खबर बनाना मीडिया का काम होना कोई गलत नहीं पर वैचारिक जामा पहनाना तो गलत है ही। आईपीएल का होना गलत नहीं पर यह सवाल पैदा तो करता है कि आखिर यह किस तरह की राष्ट्रीयता है, क्रिकेट के नाम पर? क्या यह ललित मोदी की "नेशनालिटी" है या फिर विदर्भ के किसानों का अपने "जन गण मन का अधिनायक" होना? क्या यह उत्तर है उन आधी से भी ज्यादा कुपोषित कल के नौनिहालों का या फिर यह दम खम है "करिबो, लडि़बो, जीतीबो" का या फिर हताशा है उन विस्थापित भारतवंशियों का अपनी जडो़ को तलाश करने का। शायद हाँ भी, शायद नहीं भी, पर इतना तो जरुर है कि पूँजीवाद का यह "पेप्सी पैक्ड जिन्न" "जेन्टलमैन के गेम" से नाभिनालबद्ध है।

Post a Comment

0 Comments