चुनाव में मिली पराजय की निर्मम समीक्षा ही भाजपा को दूर तक ले जा सकती है सत्ता की जबर्दस्त दावेदारी कर रही भारतीय जनता पार्टी की उतनी ही जबर्दस्त हार के बाद पार्टी में असंतोष के स्वर सामने आना स्वाभाविक है। छत्तीसगढ़ के एक नवनिर्वाचित आदिवासी सांसद ने तो सीधे भूतपूर्व "प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग" लालकृष्ण आडवाणी को निशाना बना दिया। कल तक श्री आडवाणी के बाद दूसरे नंबर के नेता के रूप में जिनकी छवि बनाई जा रही थी, वे नरेंद्र मोदी भी निशाने पर हैं। लोकसभा चुनाव में हार चुके कई भाजपाई अपनी हार के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार मानने लगे हैं। एक स्वर ऐसा भी उभर रहा है कि मुस्लिम विरोधी कट्टर हिन्दुत्व की राह छोड़कर भाजपा को अधिक सर्वसमावेशी आर्थिक विकास की राह पर चलना चाहिए। इसमें सबसे प्रमुख स्वर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का है, जिन्होंने दिल्ली के एक अखबार से बात करते हुए संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल गुरु की फाँसी को चुनावी मुद्दा बनाए जाने की आलोचना की है। उनका कहना था कि आतंकवाद के विरुद्ध सभी जातियों-धर्मों के लोगों का सम्मिलित स्वर सामने चाहिए -जैसा कि मुंबई हमले के समय हुआ- तभी इस खतरे से निबटा जा सकता है। इतना ही नहीं, उन्होंने "हिन्दुत्व" की एक नई व्याख्या दी है- "विकास ही हिन्दुत्व" है। बिजली-सड़क-पानी, बुनियादी ढाँचे का निर्माण, कृषि को लाभकर बनाना, पूंजी निवेश को बढ़ावा, महिला सशक्तीकरण आदि बुनियादी मुद्दे हैं और चुनावों में उन्होंने इन्हीं को उठाया था। यह अलग बात है कि विधानसभा चुनावों के विपरीत शिवराजसिंह चौहान अपने राज्य में लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा को वे नतीजे नहीं दे पाए। पिछली बार राज्य की 29 में से 25 सीटें भाजपा के पास थीं, इस बार सिर्फ 16 हैं। बहरहाल किसी चुनाव में हार-जीत के बहुत से कारण होते हैं जिनमें उम्मीदवारों का चयन भी शामिल है, जिसमें लगता है कि श्री चौहान की यह बात सुनी नहीं गई कि पुरानों की बजाए नयों को टिकट दिया जाए। लेकिन फिर भी चुनाव में मिली आंशिक पराजय के बाद भी शिवराजसिंह चौहान इस दिशा में सोच रहे हैं तो यह उनके दृढ़ विश्वास का द्योतक है कि यही रास्ता भाजपा को दूर तक ले जा सकता है। लेकिन क्या संघ-परिवार को, जो भाजपा के संगठन और विचारधारा का मुख्य स्रोत है, ये विचार पचेंगे? कहीं उनके इस "साहस" को "कायरता" न मान लिया जाए!
0 Comments