लंबे अरसे बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के आचार व्यवहार में एकदम तब्दीली आई है, जो प्रशंसनीय है। उन्होंने स्वयं समयानुशासन का पालन कर अफसरशाही को इसका पालन करने की हिदायत दी है। कतिपय अफसरों पर इसका असर भी हुआ है। परन्तु अधिकतर अफसरों ने शिव की भाषा को बिगड़ैल बच्चे की तरह लिया, जो अपने पिता की बात को एक कान से सुनता है और दूसरे कान से निकाल देता है। दरअसल समूचे शासन तंत्र को पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजिय सिंह ने इस कदर बिगाड़ दिया है कि नौकरशाही में सामंतवाद के अवगुण समाहित हो गए हैं, क्योंकि दिग्विजिय काल में नौकरशाह जनप्रतिनिधियों को डिक्टेट करते थे। इससे पूरे प्रदेश में कलेक्टर और एसपी राज कायम हो गया था। वहीं व्यवस्था शिव 'राज' में भी 'इकबाल' (यानी स्वीकार्य) है।


वर्तमान नौकरशाही, नव सामंतवाद का जीता जागता नमूना है। सामंती समाज की यह पूर्व निर्मित छवि दरबारियों, रइसों और दूसरे अभिजात्य वर्ग के जीवन को निर्धारित करती रही है। उनके कानून, नैतिकताएं, उनकी प्रतिज्ञाएं और दोस्त-दुश्मनों के बीच आचार-व्यवहार सभी कुछ इतना तय हो चुका है कि आसानी से उनके भावी व्यवहार को बताया जा सकता है। खानदानों की रवायतें, वंशानुगत कुंठाएं, ठसक और इसकी गौरव गाथाएं, शेखियां, आत्मसम्मान की सरहदें, उदारता-क्रूरता के क्षेत्र, अपमान-अवज्ञाओं की परिभाषाएं और सजाएं, स्वेच्छाचारिताओं और दूसरों के जीवन पर उनका नियंत्रण जरूर उनके अहंकारों को खाद-पानी देता रहा होगा। निजी सुरक्षा, अपनों से भय, जालसाजियां और बदलती निष्ठाएं शायद उन्हें कभी चैन की नींद सोने नहीं देती होगी। सामंती समय के ताने-बाने को देखकर ऐसा लगता है कि मप्र की वर्तमान नौकरशाही उस समय का वर्तमान व्याकरण बन गई है।


शिवराज सिंह ने सर्विस रूल का हवाला देते हुए समयानुशासन और समयसीमा पर फाइलें निपटाने के निर्देश दिए थे। सवाल यह उठता है कि यह उपक्रम करने की जरूरत क्यों पड़ी? निश्चित तौर पर नौकरशाही और प्रशासन तंत्र में लेतलाली तथा टालू प्रवृत्ति आई है। लिहाजा यह कदम उठाना पड़ा। मुख्यमंत्री के इस नवाचार का कितना असर नौकरशाही पर होगा? इसका जवाब मेरे पास है। इसका कोई असर नहीं होगा, क्योंकि हमारे पूरे सामाजिक एवं प्रशासनिक तंत्र में हरामखोरी, रिश्वतखोरी, लेटलतीफी की बीमारी 'घर' कर गई है। इसे जड़ से मिटाने के लिये नौकरशाही पर चाबुक चलाना होगी। एसडीओ, डॉक्टर और सीईओ को सस्पेंड करने से कुछ नहीं होगा। बड़ी मछलियों पर हाथ डालोगे तो सिस्टम में 'भय' होगा। 'भय' होगा तो 'जय' होगी। इसकी शुरुआत मुख्यमंत्री कार्यालय से करनी होगी। शिवराज को स्वयं यह आकलन करना होगा कि मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठे अफसरान और स्वयं मुख्य सचिव ने साढ़े तीन साल में कितने संभागीय कार्यालयों का दौरा किया? कितनी मर्तबा गांव में रुके? सत्ता के साकेत में बैठने के बाद अफसर हो या मंत्री, सब 'लाभ-शुभ' में लग जाते हैं। इनसे कोई उम्मीद रखना बेमानी है। 'भ्रष्टों को नहीं बक्शा जायेगा, 'अफसर समयसीमा में फाइलें निपटाएं', 'फलां योजना लागू की जायेगी', 'किसानों को मुफ्त बिजली देंगे', 'अफसर गांव में रात बिताएं' इस तरह के तमाम बयानात मुख्यमंत्री देते रहेंगे और अफसरान एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालते रहेंगे। यह सब दिग्विजय सिंह भी करते थे, लेकिन नतीजा सिफर रहा। उसका मूल कारण यह था कि अफसरान उनके मुंह लग गए थे और जनप्रतिनिधि उनसे दूर हो गए थे। अब सत्ता की गलियां इतनी मलीन हो चुकी हैं कि हर गली में रिश्वत, कमीशनखोरी की बू आती है।


शिवराज सिंह की कोशिशें ईमानदार हैं, लेकिन उन्हें निस्पृह भाव से सत्ता के घोड़े पर बैठकर मठाधीश बने अफसरान पर चाबुक चलाना होगी। कलेक्टर और एसपी नाम की 'संस्था पर स्वयं नियंत्रण रखना होगा। अभी हाल ही में मुझे संघ के एक बड़े पदाधिकारी ने बताया कि पिछले पौने चार साल में कलेक्टर और एसपी की पोस्टिंग मुख्यमंत्री सचिवालय के दो अफसरों ने ही की, जिससे उनका आर्थिक स्वास्थ्य सुधरा है। निश्चित तौर पर अब कलेक्टर और एसपी भी फील गुड में हैं। ऐसी गुडी-गुडी प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन कैसे होगा? राज्य मंत्रालय में ही ४५० से ज्यादा ऐसे कर्मचारी हैं, जो बरसों से 'सदा सुहागन' बने हुये हैं। जब तक मंत्रालय में आमूलचूल फेरबदल नहीं होगा, तब तक मंत्रालय की गति मंथर रहेगी और भ्रष्टाचार चरम पर होगा। शिवराज सिंह इस बात से भिज्ञ हैं या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम कि पिछले सात सालों में ३३ से ज्यादा आईएएस, आईपीएस और आईएफएस लोकायुक्त दागी हैं। भ्रष्टाचार का मंगलाचरण हो रहा है और शिवराज की स्मृति चैतन्यता के लिए यह बताना जरूरी है कि उक्त लोकायुक्त दागी सभी अफसरान मलाईदार पदों पर बैठे हैं। संभवतः शिव के सलाहकारों ने उन्हें यह बात जंचा दी है कि भ्रष्ट अफसर ज्यादा इफिशिएंट होते हैं। इससे मप्र के ईमानदार अफसरों का मनोबल गिर रहा है। अरेरा क्लब, जहांनुमा और नूर-उस-सबाह में हराम की स्कॉच पीने वाले ग्यारह ऐसे अफसरों को मैं जानता हूं, जो महीने में एक या दो मर्तबा मंत्रालय अथवा संबंधित कार्यालय जाते हैं। भोपाल में पदस्थ पांच आईएएस और तीन आईपीएस अफसरान पटवारी, तहसीलदार, टीआई, सीएसपी की मदद से सिर्फ और सिर्फ कालोनाइजिंग और जमीन खरोद-फरोख्त के धंधे में लगे हुये हैं। शिवराज के एक चहेते अफसर ने पिछले पौने चार साल में प्रमोटी कलेक्टरों की नियुक्ति में २५ से ४० लाख रुपये लिये हैं। नौ ऐसे बड़े अफसर हैं, जिनके घर में अशांति का वातावरण है। कारण परस्त्रीगमन है। हराम की शराबखोर, भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बताने वाली जमीनखोर अफसरशाही शिवराज के नैतिक कर्म-धर्मिता को कैसे आत्मसात कर पाएगी? प्रश्न नकारात्मक है। लेकिन निराश होने की जरूरत नहीं है। कुछ पर लगाम, कुछ पर चाबुक तो कुछ के गले में पट्टे बांधने होंगे। तभी सब कुछ ठीक होगा।


यही हाल शिव के गणों का है। वे भी बेलगाम हो गए हैं। एक महिला मंत्री शासकीय बैठकों में तू-तड़ाक करती हैं तो दूसरी महिला मंत्री हर टेण्डर प्रक्रिया में ठेकेदारों से सीधे डिलिंग करती हैं। महाकौशल के एक मंत्री ने लोकसभा चुनाव में जमकर चंदा वसूली की और अब ईमानदारी का आवरण ओढ़ रहे हैं। यही मंत्री शिवराज की महत्वाकांक्षी लाडली लक्ष्मी योजना पर सवालात उठा रहे हैं। दो मंत्री अगला चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर चुके हैं। संघ की मदद से जीतने वाली एक डॉक्टर की पूर्व पत्नी कम मतों से जीतने का ठीकरा संघ पर थोप रही है। एक हारे हुए पूर्व सांसद हारे हुये लोगों को राज्यसभा में नहीं भेजने की बात कर रहे हैं। लगभग चार हारे हुये और एक जीती हुई सांसद सेबोटेज की शिकायत कर रही है।


जिधर देखो उधर अनुशासनहीनता, बदमिजाजी और वैचारिक अराजकता का माहौल है। इसी बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मप्र भाजपा के संगठन महामंत्री माखन सिंह ने पत्रकारों से चर्चा के दौरान कुछ इस तरह बयानबाजी की...


- समीक्षा क्या करें। सबको पता है, जहां हारे हैं, क्यों हरे।
- सत्यनारायण जटिया को तो हारना ही था। उनसे कहा गया था कि सीट एक्सचेंज कर लें, पर माने नहीं।


- डॉ. लक्ष्मीनारायण पांडे पहले हाथ जोड़कर टिकट के लिए गिड़गड़ाते रहे। टिकट मिल गया तो जेब में हाथ नहीं डाला। इतना नीचे जाएंगे यह कल्पना से बाहर था। ऐसा लग रहा था कि डॉ. लक्ष्मीनारायण पांडे को तालाब में पत्थर बांध कर डुबो दें।


- तय हो गया था कि कुछ लोगों को टिकट नहीं देना है, फिर भी दिया, इसलिए ऊपर वाले भी जानते हैं, क्यों हारे।


- पार्टी के प्रदेश संगठन महामंत्री जैसे पद पर रह चुके पूर्व सांसद कृष्णमुरारी मोघे सार्वजनिक रूप से मुख्यमंत्री को कार्यशैली बदलने की न सिर्फ सलाह दे रहे हैं, बल्कि सत्ता और संगठन में तालमेल के लिए उनकी मांग समन्वय समिति की भी है।


अब जब संगठन में संघ परंपरा एवं संस्कार के लोगों की खुलेआम यह टिप्पणी होगी तो फिर कार्यकर्ताओं पर कौन लगाम लगाएगा? मैं फिर कहता हूं शिव बाबा कुछ पर लगाम लगाओ तो कुछ के गले में पट्टे बांधो वरना.......