छह माह पहले भाजपा ने विधानसभा चुनाव में जिस तरह शानदार प्रदर्शन किया था, उससे तमाम राजनीतिक विश्लेषक, राज्य में भाजपा की एकतरफा बढ़त का अनुमान लगा रहे थे । कांग्रेस के कद्दावर नेता लोकसभा चुनाव लड़ने से कन्नी काट रहे थे । प्रदेश कांग्रेस के महासचिव राजकुमार पटेल ने जानबूझकर विदिशा संसदीय सीट से आधा-अधूरा फार्म भरा, ताकि उन्हें चुनाव लड़ने की जहमत नहीं उठाना पड़े । निराशा के वातावरण में वे ही नेता टिकट पाने के लिए लालायित थे जो विधानसभा चुनाव में शिकस्त झेल चुके थे । प्रेमचंद गुड्डू, राजा पटैरिया जैसे नेता अपनी किस्मत एक बार पुनः आजमाना चाहते थे, असलम शेरखान लंबे अरसे से लोकसभा चुनाव का टिकट पाना चाहते थे । ऐसे ही नेताओं में रामेश्वर नीखरा भी शुमार थे । भाजपा में हर नेता यह समझ रहा था कि चुनाव में उनकी विजय सुनिश्चित है । कई बार चुनाव लड़ चुके सांसदों के ऊपर पार्टी को विश्वास था कि वे आसानी से चुनाव जीत जाएंगे, इसलिए डॉ० लक्ष्मीनारायण पांडे, सुमित्रा महाजन, सत्यनारायण जटिया, चन्द्रमणि त्रिपाठी, कैलाश जोशी को पार्टी ने हरी झंडी दे दी । हालांकि इन नेताओं से जनता की गहरी नाराजगी थी, वहीं कार्यकर्ताओं से भी उनके बेहतर संवाद-रिश्ते नहीं थे । चूँकि इन सांसदों का केन्द्रीय नेताओं से अच्छा संपर्क है । ऐसे में इन नेताओं को बदलना मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर एवं संगठन मंत्री माखनसिंह ने उचित नहीं समझा । वैसे भी इन नेताओं की जीत का पार्टी को अति आत्मविश्वास था । भाजपा में विक्षुब्ध नेताओं एवं कार्यकर्ताओं का बड़ा वर्ग इन तीनों नेताओं को सबक सिखाने के लिए मौके का इंतजार कर रहा था, जिन्हें तिकड़ी ने राज्यसभा में प्रत्याशी नहीं बनाया, न ही निगम के अध्यक्ष मंडलों पर नियुक्ति की । वैसे भी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने रामपालसिंह को होशंगाबाद से चुनाव लड़वाकर यह संदेश देना चाहा कि वे कहीं से भी अपनी पसंद के उम्मीदवार को चुनाव में विजयी बना सकते हैं । शिवराजसिंह चौहान का लक्ष्य छिन्दवाड़ा, गुना, झाबुआ सीटें कांग्रेस से छीनना था । बिजली, पानी, सड़क जैसे मुद्दों को उठाकर कांग्रेस ने भाजपा विरोधी वातावरण बनाने की कोशिश की, जिसने जनभावनाओं को भड़काया, इसका समाधान भाजपा वाकई में नहीं कर पाई । पानी के लिए दर-दर भटकने वाले मतदाता बिजली की कमी को लेकर भी आक्रोशित हुए । अन्य मुद्दों पर भी सांसदों से सवाल करने लगे । वहीं भाजपा के अनेक विधायकों ने सांसदों को निपटाने का खेल खेला, जो पहले कांग्रेस में ही होता था । कांग्रेस के अपेक्षाकृत कमजोर उम्मीदवार धीरे-धीरे जीत के करीब पहुँच गए, जबकि कांग्रेस नेतृत्व भी म.प्र. को हारा हुआ प्रदेश मान रहा था । कांग्रेस के नेताओं में यदि आत्मविश्वास होता और सही ढंग से वे कुछ सीटों पर उम्मीदवार उतारते तो नतीजा भाजपा के लिए ज्यादा घातक होता । भिण्ड से भागीरथ प्रसाद को चुनावी समर में उतारना प्रत्याशी के लिए रस्म अदायगी जैसा ही था । यदि वहाँ से किसी पूर्व विधायक को पार्टी प्रत्याशी बनाती तो निश्चित ही यह सीट कांग्रेस को मिलती । सीधी से अजय सिंह को टिकट देती तो सतना, सीधी दोनों ही सीटें कांग्रेस के खाते में होती । फिर भी सज्जनसिंह वर्मा, मीनाक्षी नटराजन, प्रेमचन्द गुड्डू, अरूण यादव की जीत से मालवा-निमाड़ में भाजपा का मजबूत किला ढह गया । हार-जीत का बारीकी से अध्ययन करेंगे तो इन्दौर में एक माह पूर्व सत्यनारायण पटेल को उम्मीदवार बना देती तो नतीजा कांग्रेस के पक्ष में ही हो जाता । बहरहाल, इतनी सीटें खोने से भाजपा में निराशा है । शिवराज सिंह के लिए यह चुनाव ऐसा सबक है, जिससे वे कुछ सीख ले सकें । भविष्य में उनकी प्रशासन पर पकड़, पार्टी संगठन एवं कार्यकर्ताओं में असर और जनता के हित में बिजली, पानी जैसे मुद्दे से निजात दिलाना और प्रदेश में विकास की तेज गति ही उन्हें सफलता दिलाएगी ।