
राजनीति से विचारधारा के अंत की घोंषणा आपने सुनी होगी। लेकिन व्यवहार में उतरकर वह कैसी नजर आती हैं,इस बार का आम चुनाव उसका साक्षात दर्शन कराता हैं। लोग चुनाव नहीं लड रहे,अभी से चुनाव - बाद की जोडतोड में लग गए हैं। जाहिर है,जोडतोड सिद्वांत नहीं देखती। वैचारिक प्रतिबद्वताओं की तो उसमें कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। इसलिए वे एक साथ दो तरह की भाषा बोल रहे हैं। शुकवार की ही घटनाएं देखिए। एक तरफभुवनेश्वर में तीसर मोरचे की बैठक हुई। कल तक भाजपा के साथ पींगें भरने वाले नवीन पटनायक आज वाम दलों के साथ सर्वहारा क्रांति के सपने देख रहे हैं। सबसे दिलचस्प बात यह रही कि केंद्र में संप्रग सरकार में शामिल कुषि मंत्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के लागे भी इस रैली में शामिल हुए,लेकिन ऐन तौके परशरद पवार नहीं गए। क्योंकि वह कांग्रेस की घुडकी से डर गए थे। अब वह कह रहे हैं। कि उडीसा में उनका समझौता बीजेडीसे है,वाम दलों से नहीं। उधर उनकी पार्टी के दो पदधिकारी वाम दलों के साथ समझौते को अनिवार्य बता रहे हैं। आखिर आप कैसे एक ही वक्त में दोनो तरफ हो सकते हैं। यानी चिंता भविष्य की है,जब प्रधानमंत्री पद के लिए दौड होगी और उसमें शरदपवार भी शामिल होगें। तब यदि जरूरत पडी, तो वाम दलों का सहयोग भी लिया जा सकता हैं। वह हर दल से बनाकर रखना चाहते हैं। भले ही वह शिवसेना ही क्यों न हो। यही हाल गंगा -यमुना घाटी के तीन क्षत्रपों का हैं। लखनऊ में मुलायम सिंहयादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान की सभा हुई।ये नेता कह रहे थे कि हम कांग्रेस के खिलाफनहीं हैं। कांग्रेसके खिलाफ हो भी कैसे सकते हैं, सरकार में शामिल जो हैं। लेकिन आप कांग्रेस के खिलाफनहीं हैं। तो उसके प्रत्याशियों के खिलाफ अपने उम्मीदवार क्यों खडे कर रहे हैं।इससे तो आप आपस में ही एक - दूसरे के वोट काटेंगे। यानी अर्थ यहां भी वही हैं। इस चुनाव में भले ही उनके प्रत्याशी दुश्मनों की तरफ आमने - सामने होगें, लेकिन उसके बाद के परिदृश्य में अपनीजगह सुरक्षित रहे, इसलिए यह दोमुही तकरीर की जा रही हैं। कांग्रेस और भाजपा का हाल भी कोई बहुत अच्छी नहीं हैं। भाजपा नो जो घोषाणापत्र जारी किया है,उसमें कांग्रेस भी है और भाजपा भी।उसमें राम मंदिर भी है और दो रूपये किलों चावल भी हैं। उसमें मध्यवर्ग को लुभाने के लिए आयकर में छूट देने जैसे लुभावने वायदे हैं। तो आतंकवाद के खिलाफ कडा कानून बनाने का संकल्प भी। लेकिन कुल मिलाकर पार्टी का कोई ठोस चरित्र उभरकर नहीं आ पा रहा। ऐसा इसलिए है कि इस बार हर पार्टी डरी हुई हैं। किसी को स्वयं पर भरोसा नहीं हैं। वे वामदल भी डरे हुए हैं। जिन्हें अपनी वैचारिक प्रतिबद्वता का गुमान कारहा हैं। इसलिए वे अब उनसे हाथ मिलाने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं जो कल तक एकदम दूसरे पाले में थे। जब अपनी विचारधारा खत्म हो गई हो, तो ऐसा ही होता हैं।
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अच्छे आलेख के लिए आभार ।
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